(क्या लंगड़ा शख्स अज़ान व अक़ामत कह सकता है ?)

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 (क्या लंगड़ा शख्स अज़ान व अक़ामत कह सकता है ?)

अस्सलामु अलैकुम व रहमतुल्लाहि बरकातूह
सवाल : क्या फरमाते हैं उल्मा ए दीन व मुफ्तियाने शरअ मतीन इस मसअले में कि लंगड़े लोगों का अज़ान व अक़ामत कहना कैसा है ?
साइल : मुहम्मद अब्दुर्रज़्ज़ाक़ क़ादरी

व अलैकुम अस्सलाम व रहमतुल्लाहि बरकातूह
जवाब : सब से पहले यह मसअला वाज़ेह रहे की अज़ान व अक़ामत वही शख्स कहे जो गैर माज़ूर हो और अज़ान व अक़ामत के कलिमात दुरुस्त मखारिज और तलफ्फुज़ के साथ अदा कर सकता हो, ता हम अगर टांगों से माज़ूर शख्स सही तलफ्फुज़ के साथ अज़ान व अक़ामत के कलिमात कहने पर क़ादिर हो तो उसका अज़ान व अक़ामत कहना जायज़ है, क्योंकि शरई तौर पर अज़ान व अक़ामत कहने के लिए मुअज़्ज़िन व मुक़ीम का सलीमुल अज़ा होना लाज़िम नहीं।अलबत्ता बैठ कर अज़ान व अक़ामत कहना मकरूह है और यह सुन्नते मुतवातिर के खिलाफ है, लेकिन माज़ूर शख्स अगर बैठ कर अज़ान व अक़ामत कहने पर क़ादिर ना हो तो उसका बैठ कर अज़ान व अक़ामत कहना बिला कराहत जायज़ है।हदीस मुबारक में है

عن الحسن بن محمد قال: دخلت علی أبي زید الأنصاري، فأذن وأقام وهو جالس إلی- عن عطاء بن أبي رباح أنه قال: یکره أن یؤذن قاعدا إلا من عذر

यानी हज़रत हसन बिन मुहम्मद रज़ि अल्लाहु तआला अन्ह से मरवी है कि वह कहते हैं|मैं अबू ज़ैद अंसारी रज़ि अल्लाहू तआला अन्ह के पास आया तो उन्हों ने अज़ान दी और बैठ कर अक़ामत की, हज़रत अता बिन अबी रुबाह से रिवायत है कि उन्हों ने कहा कि बिला उज़्र बैठ कर अज़ान कहना मकरूह है।(सुननुल कुबरा लिल बैहिक़ी 2/141 रक़मुल हदीस: 1883)

शरह अशबाह वन नज़ाहिर में है

" المشقة تجلب التیسر "

यानी सख्ती आसानी लाती है और इसी में है

" اعلم ان اسباب التخفیف فی العبادات و غیرھا سبعةالاول السفر الثانی المرض "

जान लो कि इबादात और दिगर चीज़ों में तखफीफ (आसानी,नर्मी) के असबाब सात हैं।
पहला सफर और दूसरा बिमारी।(शरहुल अशबाह वन नज़ाहिर जिल्द 1 सफा 245)

अल फिक़्हतु अला मज़ाहिबुल अरबअह में है

" وان یکون قائما الا لعذر من مرض ونحوہ "

यानी अज़ान खड़े हो कर कहना होगी लेकिन अगर किसी उज़्र या इस जैसे किसी मर्ज़ से हो (तो बैठ कर कहना जायज़ है)और इसी में है

" فعلم ان اذان و اقام قاعدا لعذر جاز بالاتفاق "

यानी पस जान लिया गया कि अज़ान व अक़ामत किसी उज़्र की वजह से हो तो बैठ कर कहना बिल इत्तेफाक़ जायज़ है।

" وفیہ ایضاً الاقامة کالاذان فکمھا حکمہ "

यानी इसी में है कि अक़ामत अज़ान की तरह है पस अक़ामत का हुक्म अज़ान का हुक्म है।(फिक़्हतु अला मज़ाहिबुल अरबअह जिल्द 1 सफा 286)

अस्सलातु अला मज़ाहिबुल अरबअह मअ अदलतु अहकामहा में है|

" ان یکون قائماً الا لعذر "

यानी अज़ान खड़े हो कर कहना लेकिन अगर किसी उज़्र की वजह से (बैठ कर कहे तो जायज़ है)
(अस्सलातु अला मज़ाहिबुल अरबअह सफा 135)

लिहाज़ा दर्ज बाला हवाला जात की रौशनी में मालूम हुआ कि लंगड़े (टांगों से माज़ूर शख्स) का खड़े हो कर भी अज़ान व अक़ामत कहना दुरुस्त है और उज़्र की वजह से बैठ कर भी अज़ानों अक़ामत कह सकता है।वल्लाहु तआला व रसूलुहुल आला आलमु बिस्सवाब अज़्ज़ व जल व सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम

अज़ क़लम 
 सैय्यद मुहम्मद नज़ीरुल हाशमी सहरवरदी
17 जमादिल अव्वल 1446 हिजरी मुताबिक़ 20 नवम्बर 2024 ब रोज़ बुध
हिंदी अनुवादक 
 मुहम्मद रिज़वानुल क़ादरी अशरफी सेमरबारी दुदही कुशीनगर
मुक़ीम : पुणे महाराष्ट्र
26 जमादिल अव्वल 1446 हिजरी मुताबिक़ 29 नवम्बर 2024 ब रोज़ जुमआ
मीन जानिब : मसाइले शरइय्या ग्रुप

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