(उमरह करने का आसान तरीक़ा किया है ?)
अस्सलामु अलैकुम व रहमतुल्लाहि व बरकातुहू
सलाम के बाद उलमाए किराम व मुफ्तियाने इज़ाम से गुजारिश है कि उमरह करने का आसान तरीक़ा लिख दें जो मुख्तसर ( छोटा,खुलासा ) हो और ऐराब (ज़बर, ज़ेर, पेश वगैरह) के साथ हो ताकि पढ़ने और समझने में आसानी हो दूसरी किताबों में बहुत तवील (लम्बा, बड़ा) लिखा हुआ है जिससे समझने में कठिनाई हो रही है, अल्लाह पाक हम सब को हरमैन-शरीफैन (मक्का,मदीना) की ज़ियारत नसीब फरमाए । आमीन
साइल:- अब्दुल्ला क़ादरी वाहिदी
व अलैकुम अस्सलाम व रहमतुल्लाहि व बरकातुहू
बिस्मिल्ला हिर्रहमा निर्रहीम
अल'जवाब :- अल्लाह तआला इरशाद फरमाता है
اِنَّ الصَّفَا وَالْمَرْوَۃَ مِنْ شَعَآئِرِ اللّٰہِ٭ فَمَنْ حَجَّ الْبَیْتَ اَوِاعْتَمَرَ فَلَا جُنَاحَ عَلَیْہِ اَنْ یَّطَّوَّفَ بِھِمَا
बेशक सफ़ा और मरवह अल्लाह के निशानियों में से है तो जो इस घर का हज या उमरह करे उस पर कुछ गुनाह नहीं के उन दोनों के फ़ेरे करे (कंजुल ईमान, पारा 2 सूरह बक़रा आयत नo 158)
याद रहे कि हज या उमरह का सफ़र करने के लिये एक आलिम साहब को ज़रूर साथ ले लें ताकि उनसे शरीअत के मसअले मालूम कर सकें और अगर कोई आलिम साहब साथ न हो तो फ़कीहे मिल्लत हज़रत अल्लामा मुफ्ती जलालुद्दीन अमजदी साहब अलैहिर्रमा की "हज व ज़ियारत" नामी किताब ज़रूर अपने साथ रख लें फिर उससे मदद हासिल करते रहें ।
घर से निकलने से पहले लोगों के हुक़ूक़ अदा कर दें और अगर अदा करने की ताक़त न हो तो माफ करा लें, गुनाहों से सच्चे दिल से तौबा कर लें, अज़ीज़ों दोस्तों से अपने क़ुसूर माफ करा लें और जरूरत के सामान को इकठ्ठा कर लें, फिर निकलने से पहले मकान के अंदर मकरूह वक्त न हो तो चार रिकात नफ़ल नमाज़ पढ़ें इस तरह कि पहली रकात में قَلْ یٰٓاَیُّھَا الْکٰفِرُوْنَ दूसरी रकात में قُلْ ھُوَ اللّٰہُ اَحَد तीसरी रकात में قُلْ اَعُوْذُ بِرَ بِّ الْفَلَقْ और चौथी रकात में قُلْ اَعُوْذُ بِرَبِّ النَّاسِ पढ़ना बेहतर है फिर नमाज़ के बाद दुआऐं मांगे और दुरूद पढ़ते हुए घर से रवाना हो जाए, फिर मोहल्ले की मस्जिद में दो रकात नफ़ल नमाज़ पढ़े पहली रकात में قَلْ یٰٓاَیُّھَا الْکٰفِرُوْنَ और दूसरी रकात में قُلْ ھُوَ اللّٰہُ اَحَد पढ़े, किताबों में हर हर मौक़े पर पढ़ने के लिये दुआऐं लिखी हैं मगर सब दुआओं को याद करना दुश्वार (मुश्किल) है इस लिये दुआ के बजाए जितना ज़्यादा हो सके हुज़ूर नबी करीम अलैहिस्सलाम पर दुरूद पड़ता रहे और लोगों से मुसाफ़हा व मुआनक़ा (हाथ और गले मिलाना) करता हुआ दुआएं देता और लेता हुआ लोगों को अल्लाह पाक के सिपुर्द करके जब गाड़ी वगैरह पर बैठे तो यह दुआ पढ़े
سُبْحٰنَ الَّذِیْ سَخَّرَ لَنَا ھٰذَا وَ مَا کُنَّا لَہٗ مُقْرِنِیْنَ • وَاِنَّا اِلیٰ رَبِّنَا لَمُنْقَلِبُوْنْ
फिर जब जहाज़ पर सवार हो तो यह दुआ पढ़े
بِسْمِ اللّٰہِ مَجْرٖھَا وَ مُرْ سٰھَآ اِنَّ رَبِّیْ لَغَفُوْرٌ الرَّحِیْمٌ
याद रहे कि जब आप अपने वतन से निकालें तो नमाज़ में क़स्र करें यानी ज़ोहर,असर और ईशा चार रिकात वाली नमाज़ को दो रकात पढ़ें कि दो रकात पढ़ना वाजिब है अगर चार रकात पढ़ेंगे तो गुनहगार होंगे, फज्र, मग़रिब, वित्र और सुन्नत में क़स्र नहीं मौक़ा मिले तो पूरा पढ़े और अगर मौक़ा न मिले तो माफ़ है।
फिर अगर आपको पहले मदीना शरीफ जाना है तो वहाँ भी क़स्र ही से पढ़े कि वहाँ 8 दिन से ज्यादा रहने नहीं दिया जाता, हां अगर पहले मक्का शरीफ जाना है तो मक्का शरीफ पहुंचने के बाद न करे कि वहां 15 दिन ठहरना रहता है और जब 15 दिन ठहरने की नियत हो तो क़स्र पढ़ना जाइज़ नहीं बल्कि पूरी नमाज़ पढ़े, लेकिन अगर सिर्फ उमरह के लिये गए हैं तो वहां भी क़स्र करें कि वहां भी 1 हफ्ता ही रहना होगा
नोट :- याद रहे कि क़स्र उस वक्त आपको करनी है जब आप अकेले पढ़ें या मुसाफिर इमाम नमाज़ पढ़ाए और अगर नमाज़ पढ़ाने वाला मुसाफिर नहीं है तो आपको भी इमाम के साथ 4 रकात ही पढ़नी होगी, मगर यह भी जरूर याद रहे कि किसी बद अक़ीदा इमाम के पीछे न पढ़ें ।
अगर पहले मदीना शरीफ जाना है तो दुआ पढ़ कर जहाज़ पर सवार हो जाएं और ज़्यादा से ज़्यादा दुरूद शरीफ पढ़ते रहें, और अगर पहले मक्का शरीफ जाना है तो जहाज़ अड्डे पर सुन्नत के मुताबिक एहराम बांध लें, यानी बगैर सिला हुआ एक कपड़ा लूंगी के तौर पर बांध लें और एक चादर बदन पर डाल लें मगर अभी कंधा खोले नहीं।( औरतों का एहराम उनके सिले हुए कपड़े हैं )
एहराम बांधने के बाद अगर मकरूह वक्त न हो तो सर ढांप कर एहराम की नियत से 2 रकात नफ़ल नमाज़ पढ़े पहली रकात में قَلْ یٰٓاَیُّھَا الْکٰفِرُوْنَ और दूसरी रकात में قُلْ ھُوَ اللّٰہُ اَحَد पढ़े सलाम फेरने के बाद सर से चादर हटा ले और उसी जगह बैठे हुए नियत करे " ऐ अल्लाह मैं उमरह की नियत करता/करती हूं इस को मेरे लिये आसान कर दे और इसे मेरी तरफ से क़बूल फरमा, लेकिन बेहतर यह है कि अभी नियत न करें बल्कि बगैर नियत एहराम का कपड़ा पहन कर जहाज़ पर सवार हो जाएं जब जहाज़ मिक़ात के क़रीब पहुंचता है तब एलान कर दिया जाता है उस वक्त एहराम की नियत करें।ज़बान से कह ले तो बेहतर है और अगर ज़बान न कहा बल्कि दिल ही में नियत कर ली तब भी नियत हो गई, नियत के बाद आहिस्ता आवाज़ में 3 बार लब्बैक कहे
لَبَّیْکَ اَللّٰھُمَّ لَبَّیْکَ ،لَبَّیْکَ لَا شَرِیْکَ لَکَ لَبَّیْکَ اِنَّ الْحَمْدَ وَالنِّعْمَۃَ لَکَ وَالْمُلْکَ ،لَا شَرِیْکَ لَکَ
एहराम के लिये नियत और 1 बार लब्बैक कहना शर्त है और अगर लब्बैक न कहा' या लब्बैक कहा मगर नियत न की तो एहराम न हुआ।फिर जब मस्जिदे हराम (काबा शरीफ) पहुंचे तो तवाफ और सई ( सफ़ा-मरवा पहाड़ ) के लिये तैयार हो जाएं और अदब के साथ लब्बैक कहते हुए हरम शरीफ में जाएं दुआएं याद हो तो उसे पढ़ें वरना दुरूद शरीफ की कसरत करते रहें फिर जब पहली बार काबा शरीफ पर नज़र पड़े तो खूब दुआएं करें कि पहली बार काबा शरीफ पर नज़र पड़ने के बाद जो दुआ की जाती है अल्लाह पाक उसे क़बूल फरमाता है, इस लिये उलमाए किराम फरमाते हैं जब काबा शरीफ पर नज़र पड़े तो बेहतर यह है कि इस तरह दुआ करे "मौला करीम मैं जो जाइज़ दुआएं जब भी करूं और जिस किसी के लिये करूं उसे क़बूल फरमा" फिर जो दुआएं मांगना चाहे अपने लिये, घर वालों और तमाम मोमिनीन व मोमिनात के लिये दुआए खैर करें ( हम सबके लिये भी दुआ करें कि अल्लाह पाक हरमैन-शरीफैन की ज़ियारत नसीब फरमाए ) कि यह दुआ क़बूल होने का वक्त है और लब्बैक पढ़ते हुए बाबुस्सलाम से या जहां से रास्ता मिले मताफ़ (जहां तवाफ किया जाता है) में दाखिल हों, उसके बाद इज़्तबाअ करें यानी एहराम की चादर को दाहिनी बगल के नीचे से निकाल कर दाहना मुंढा खोल दें और उसके दोनों किनारों को बाएं मुंढें पर डालें फिर काबा शरीफ की तरफ मुंह करके नियत करे
اَللّٰھُمَّ اِنِّی اُرِیْدُ طَوَافَ بَیْتِکَ الْحَرَامِ فَیَسِّرْ ہُ لِی وَتَقَبَّلْہُ مِنِّی
( ऐ अल्लाह मैं तेरे इज़्ज़त वाले घर का तवाफ करना चाहता/चाहती हूं इस को मेरे लिये आसान कर और इस को मेरी तरफ से क़बूल फरमा )
नियत करने के बाद काबा शरीफ की तरफ मुंह किये हुए इस तरह चलें कि काबा शरीफ बाएं हाथ की तरफ रहे क्योंकि दिल बाएं तरफ है और अल्लाह तआला चाहता है कि मेरे बंदे जब मेरे घर का तवाफ़ करें तो उनका दिल काबा शरीफ से क़रीब हो जाए, फिर ज़रा सा आगे बढ़ेंगे तो हज्र असवद के सामने हो जाएंगे अब वहां कानों तक हाथ इस तरह उठाएं कि हथेलियां हज्र असवद की तरफ रहें फिर हुज़ूर नबी करीम अलैहिस्सलाम पर दुरूद भेजें, और मयस्सर हो सके तो हज्र असवद का बोसा(चूम) लें यह न हो सके तो हाथ बढ़ा कर चूम लें और अगर यह भी न हो सके तो इस्तेलाम करें यानी जहां हों वहीं से हथेलियों को हज्र असवद की तरफ करके हथेली को चूम लें।
फिर इस्तेलाम से फारिग (फ्री) हो कर तवाफ शुरू करें चूंकि यह उमरह का तवाफ है इस लिये इस में इज़्तबाअ के साथ रमल भी सुन्नत है यानी तवाफ में शुरू के 3 फेरों में जल्दी-जल्दी छोटा क़दम रखता हुआ और कंधा हिलाता हुआ चले जैसे बहादुर लोग चलते हैं ।
नोट:- औरतों के लिये रमल और इज़्तबाअ नहीं है
हज्र असवद से हज्र असवद तक 1 चक्कर होता है इस तरह पूरे 7 चक्कर लगाना है याद रहे कि हर चक्कर में हज्र असवद के सामने पहुंच कर इस्तलाम करना है 7 चक्कर पूरे होने के बाद 1 तवाफ मुकम्मल हो गया तवाफ खत्म करने के बाद चादर से दोनों कंधे ढांक लें और मक़ामे इब्राहीम या जहां जगह मयस्सर हो 2 रकात नमाज़े वाजिबुत्तवाफ की नियत से पढ़ें नियत इस तरह करें "नियत की मैने दो रकअत नमाज़ वाजिबुत्तवाफ वास्ते अल्लाह तआला के मुंह मेरा काबा शरीफ की तरफ अल्लाहु अकबर" पहली रकअत में( قَلْ یٰٓاَیُّھَا الْکٰفِرُوْنَ) और दूसरी रकअत में (قُلْ ھُوَ اللّٰہُ اَحَد )पढ़ें।
नोट:- याद रहे कि मजरूह वक्त हो तो वाजिबुत्तवाफ न पढ़ें यानी सुबह सादिक़ तुलूअ होने के बाद तवाफ किया तो सूर्य निकलने के 20 मिनट बाद पढ़ें और दोपहर में तवाफ किया तो सूर्य ढलने के बाद पढ़ें और असर की नमाज़ के बाद तवाफ़ किया तो मगरिब की नमाज़ के बाद पढ़ें
नमाज़ के बाद खूब दुआएं मांगें,नमाज़ और दुआ से फारिग हो कर मुल्तज़म (हज्र असवद और काबा शरीफ के दरवाज़े के दरमियान तकरीबन 6 फिट जगह है उसी को मुल्तज़म कहते हैं) के पास जाएं और लिपट कर खूब दुआएं मांगें और नबी करीम अलैहिस्सलाम पर खूब दुरूद भेजें कि अल्लाह तआला दुरूद शरीफ के सदक़े में दुआएं क़बूल फरमा ले।
(2) मुल्तज़म के पास नमाज़े वाजिबुत्तवाफ के बाद आने का हुक्म उस तवाफ में है जिसके बाद सई है और जिसके बाद सई न हो उसमें पहले मुल्तज़म से लिपटे फिर मक़ामे इब्राहीम के पास जा कर 2 रकअत नमाज़ वाजीबुत्तवाफ पढ़े
मुल्तज़म से फारिग हो कर आबे ज़मज़म पीने के लिये आएं 3 सांस में पेट भर जितना चाहें खड़े हो कर पीयें और बरकत के लिये सर पर और तमाम बदन पर मलें और पीते वक्त जो चाहे जाइज़ दुआ करें कि क़बूल होती है मक्का शरीफ में रहने तक कई बार पीना नसीब होगा तो बेहतर यह है कि हर मर्तबा खास खास मुरादों के लिये पियें
तवाफ और वाजिबुत्तवाफ वगैरह से फारिग होने के बाद सफ़ा व मरवा के दरमियान सई करने के लिये फिर हज्र असवद का इस्तलाम करें और दुरूद शरीफ पढ़ते हुए बाबुस्सफ़ा या जिस दरवाज़े से रास्ता मिले सफ़ा की जानिब निकलें दुरूद शरीफ पढ़ते हुए सफ़ा पर चढ़ें मगर ज़्यादा ऊंचा न चढ़ें कि यह बद मजहबों का काम है सिर्फ इतना ऊंचा चढ़ना काफी है कि अगर बीच में दीवारें न हाइल होती तो काबा शरीफ नज़र आता।
फिर काबा शरीफ की तरफ मुंह करके दोनों हाथ मूंढों तक दुआ की तरह फैले हुए उठाएं और ज़िक्र व दुरूद शरीफ पढ़ें साथ ही अपने और तमाम मोमिनीन के लिये दुआए खैर करें, दुआ में हथेलियां आसमान की तरफ फैलाएं काबा शरीफ की तरफ न करें और न बार बार हाथ उठाएं बल्कि एक बार उठाएं और जब तक चाहें दुआ मांगें फिर सई की नियत करें
اَللّٰھُمَّ اِنِّی اُرِیْدُ السَّعْیَ بَیْنَ الصَّفَا وَالْمَرْوَۃِ فَیَسِّرْ ہُ لِی وَتَقَبَّلْہُ مِنِّی
ऐ अल्लाह पाक में सफ़ा व मरवा के दरमियान सई का इरादा करता हूं तू इसको मेरे लिये आसान कर दे और इसको मेरी तरफ से क़बूल फरमा, याद रहे अरबी में न कह सकें तो अपनी ही ज़बान में कह लें काफी है।
नियत के बाद सफ़ा से उतर कर मरवा की तरफ चलें ज़िक्र और दुरूद शरीफ बराबर जारी रखें जब पहला सब्ज़ सुतून (हरा खम्बा) आए तो दरम्यानी ( न बहुत तेज़ न बहुत आहिस्ता) रफ्तार से दौड़ कर चलें यहां तक कि दूसरे सब्ज़ सुतून से आगे निकल जाएं फिर आहिस्ता चलें और मरवा तक पहुंचें यहां भी ज़्यादा ऊपर चढ़ने की ज़रूरत नहीं सफ़ा की तरह यहां भी दुआ मांगें, सफ़ा से मरवा तक एक फेरा हुआ और मरवा से सफ़ा की तरफ मामूली (नार्मल) चाल चलें जब सब्ज़ सुतून आए तो दौड़ें और दूसरा सुतून आने पर आहिस्ता चलें यह दूसरा फ़ेरा हुआ इसी तरह 7 चक्कर लगाए यानी सफ़ा से शुरू करे और मरवा पर खत्म करे।
नोट:- सई पर इज़्तबाअ नहीं है, और न औरतों को दौड़ने का हुक्म है।
सऊदी हुकूमत ने नया मसई (जहां सई की जाती है) बनाया है वह पुराने मसई से छोटा है लिहाज़ा नए मसई से जब सई करे तो 14 चक्कर लगाएं कि 7 फेरा मुकम्मल हो जाए।
सई से फारिग होने के बाद सर के बाल मुंडाऐं या कुतरवा लें और औरतें पूरे सर के बाल उंगली के पोर की मिक़दार के बराबर कुतर लें किसी ना महरम (अजनबी) से हरगिज़ न कुतरवाएं कि गुनाह है।
इसके बाद मर्द व औरत के लिये एहराम की वजह से जो चीजें हराम थीं वह अब हलाल हो गईं, अब हुज्जाज (हाजी लोग) जब तक मक्का शरीफ में रहें हो सके तो मस्जिदे आयशा में जा कर एहराम बांध कर उमरह करते रहें या फिर इज़्तबाअ,रमल और सई के बगैर नफ़ल तवाफ़ करते रहें कि बाहर वालों के लिये यह सबसे बेहतर इबादत है, इसके बाद अब खास कोई अमल नहीं, 8 ज़िल'हिज्जा का इंतेज़ार करें कि इस दिन से हज के अरकान शुरू होंगे।
बारगाहे खुदा वंदी में दुआ है मौला करीम किसी क़िस्म की गलती हुई हो तो माफ फरमा और हम सबको हरमैन शरीफैन की ज़ियारत नसीब फरमा।आमीन बिजाहे सय्यदिल मुरसलीन अलैहिस्सलातु वत्तसलीम
अज़'क़लम
मौलाना ताज मुहम्मद क़ादरी वाहिदी
हिन्दी अनुवादक
मुजस्सम हुसैन (गोड्डा झारखण्ड)
मुक़ीम:- गाजीपुर उत्तर प्रदेश
मिन जानिब:- मसाइले शरइया ग्रुप