(किया औरत उजरत पर काम कर सकती है?)
अस्सलामु अलैकुम व रहमतुल्लाहि व बरकातुहूकिया फरमाते हैं उलमाए किराम इस मसअला में कि किया औरतें अपने घर में रह कर उजरत पर कोई काम कर सकती हैं?
जैसे कपड़े में कढ़ाई करना या इस तरह का कोई और काम, हमारे यहां कुछ लोग आते हैं कपड़ा और साथ ही कढ़ाई का सामान दे जाते हैं फिर हमें अपने घर रह कर तैयार करना होता है और इस एतबार से हमें उजरत (रुपया) मिलती है तो किया यह जाइज़ है?
साइलह :- इक़रा बानू
व अलैकुम अस्सलाम व रहमतुल्लाहि व बरकातुहू
बिस्मिल्ला हिर्रहमा निर्रहीम
अल'जवाब :- औरत पर अपना नान व नफ़क़ा (रोटी,कपड़ा) लाज़िम नहीं है कि गैर शादी शुदा है तो बाप या भाई कफ़ालत (ज़िम्मेदारी) करता है और शादी शुदा है तो शौहर के ज़िम्में होता है, इस लिये औरत को चाहिये कि घर के काम काज में ध्यान दें तमाम ज़रूरियात को पूरी करें हां अगर शौहर की कमाई से घर का खर्चा पूरा न होता हो तो घर पर काम कर सकती हैं, जबकि काम देने वाला मर्द न हों बल्कि औरतें लाती हों और अगर मर्द लाते हों तो उनसे कपड़ा और कढ़ाई का सामान शौहर ले लिया करे।
सरकार आला हज़रत अलैहिर्रहमा से सवाल हुआ कि ज़ैद की औरत गरीबी की वजह से एक मोतबर (भरोसा) जगह मुलाज़िम (नौकरी करना) है, ज़ैद और उसकी औरत शरीफुल क़ौम (नेक इंसान) है कपड़ा इस तरह पर नहीं इस्तेमाल किया जाता कि जिससे सतर को नुक़सान पहुंचे कुछ लोग कहते हैं कि नमाज़ ज़ैद के पीछे नहीं पढ़नी चाहिए कि उसकी औरत गैर महरम के यहां बेपर्दा रहती हैं
अगर ज़ैद की बीवी मुलाज़िमत न करे तो सिर्फ ज़ैद के तनख़ाह से अक्सर वक्त काफी नहीं हो सकती है, तो आप अलैहिर रहमा जवाब में लिखते हैं कि यहां 5 शर्ते हैं (1) कपड़े बारिक (पतले) न हों जिन से सर के बाल या कलाई वगैरह सतर का कोई हिस्सा दिखे (2) कपड़े छोटे और चुस्त न हों जो बदन की हैअत (ढांचा,शक्ल) ज़ाहिर करे (3) बालों, गले, पेट, कलाई या पिंडली का कोई हिस्सा ज़ाहिर (दिखते) न हों (4) कभी ना महरम के साथ किसी ख़फ़ीफ़ (थोड़ी) देर के लिए भी तनहाई न होती हों (5) इसके वहां रहने या बाहर आने जाने में कोई फ़ितने का गुमान न हो, यह 5 शर्तें अगर जमा हैं यानी पाई जाती हैं तो हर्ज नहीं और इनमें एक भी कम है तो हराम फ़िर अगर ज़ैद इस पर राज़ी है या बक़द्र क़ुदरत बंदोबस्त नहीं करता यानी कर सकता है मगर नहीं करता है तो ज़रूर उस पर भी इल्ज़ाम वरना नहीं
अल्लाह तआला क़ुरआन शरीफ में इरशाद फरमाता है
لَا تَزِرُ وَازِرَةٌ وِزْرَ أُخْرَى
यानी कोई जान किसी दूसरी जान का बोझ न उठाएगी
(फ़तावा रज़विया पार्ट 22 पेज़ 348 दावते इस्लामी)
ऊपर जो बयान किया गया उससे ज़ाहिर है कि अगर घर के खर्च पूरे न होते हों तो जो शर्त है उस शर्त के साथ औरत काम कर सकती है, चूंकि आपको घर में रह कर काम करना है तो शरअं कोई हर्ज नहीं है।
और अगर घर के खर्च पूरे हो रहे हैं लेकिन दूसरा कोई रिश्तेदार गरीब है और उसकी मदद करने की गर्ज़ से काम करना चाहती हैं जब भी हर्ज नहीं बल्कि गरीब के मदद की नियत से बेहतर और सवाब का काम है।
चूंकि औरतों के अंदर गीबत और चुगलखोरी बहुत ज़्यादा पाई जाती है और जब काम न हो तो अकसर औरतें साथ बैठ कर एक दूसरे की गिबत किया करती हैं जब कि क़ुरआन पाक और हदीसों में इसपर वईदें (सज़ा) आई हैं, तो अगर कोई औरत इस गर्ज़ से काम करे कि गीबत से महफूज़ रहें जब भी हमारे नज़दीक जाइज़ है कि गुनाह से बचना भी सवाब है और अगर काम के दौरान दुरूद शरीफ पढ़ती रहें तो दोगुना सवाब है, एक ग़िबत से बचने का दूसरा दुरूद शरीफ पढ़ने का।
वल्लाहु तआला आलमु बिस्सवाब
लेखक
मौलाना ताज मुहम्मद क़ादरी वाहिदी
हिन्दी अनुवादक
मुजस्सम हुसैन (गोड्डा झारखण्ड)
मुक़ीम:- गाजीपुर उत्तर प्रदेश
मिंजानिब :- मसाइले शरइया ग्रुप