(क्या नमाज़ में मशहूर दुआ ए क़ुनूत का पढ़ना वाजिब है ?)
अस्सलामु अलैकुम व रहमतुल्लाहि बरकातूह
साइल : मुहम्मद वासिक़ अरब शहरवर्दी दाहोद गुजरात
व अलैकुम अस्सलाम व रहमतुल्लाहि बरकातूह
जवाब: नमाज़े वित्र में मखसूस व मअरुफ दुआ ए क़ुनूत का पढ़ना वाजिब नहीं, अगर मअरुफ दुआ ए क़ुनूत याद ना हो तो नमाज़े वित्र में सिर्फ एक बार इतना पढ़ ले
"اللھم ربنا اٰتنا فی الدنیا حسنۃ وفی الآخرۃ حسنۃ وقنا عذاب النار‘‘
अगर यह भी याद ना हो, तो तीन बार
’’اللھم اغفرلی‘‘
पढ़ ले, अगर यह भी याद ना हो, तो सिर्फ तीन बार
’’یا ربِّ ‘‘
कह ले, इस सूरत में नमाज़ हो जाएगी।
अल बत्ता नमाज़े वित्र में मअरुफ दुआ ए क़ुनूत जो हुज़ूर ﷺ से साबित है इसका पढ़ना सुन्नते मुबारका है लिहाज़ा मअरूफ दुआ ए क़ुनूत याद कर लेना चाहिए।
मगर जब तक याद ना हो तब तक दर्ज बाला दुआ पढ़ सकते हैं, वाजिब अदा हो जाएगा।
अल बहरुर राइक़ शरह कंज़ुद्दक़ाइक़ में हज़रत अल्लामा ज़ैनुद्दीन इब्न इब्राहीम बिन मुहम्मद अश्शहिर बा बिन नजीम (अल मुतवफ्फा 970 हिजरी) तहरीर फरमाते हैं
”واتفقوا على أنه لو دعا بغيره جاز“
तर्जुमा : फुक़हा ए किराम रहमतुल्लाहि तआला अलैहिम का इस बात पर इत्तेफाक़ है कि अगर कोई इस (मअरुफ दुआ ए क़ुनूत) के अलावा कोई और दुआ पढ़े, तो यह भी जायज़ है।
(البحر الرائق ، کتاب الصلوٰۃ ، باب صفۃ الصلوٰۃ ، القنوت فی الوتر ، ج١، ص٣١٨ ، بیروت)
रद्दुल मुहतार में हज़रत अल्लामा सैय्यद इब्ने आबिदीन अश्शामी अल हाशमी क़ादरी नक़्शबंदी अलैहिर्रहमा (अल मुतवफ्फा 1252 हिजरी) फरमाते हैं
’’من لا یحسن القنوت یقول :ربنا اٰتنا فی الدنیا حسنۃ وفی الاٰخرۃ حسنۃ و قال ابواللیث یقول اللٰھم اغفرلی یکررھا ثلاثا و قیل یا رب ثلاثا ذکرہ فی الذخیرۃ‘‘
तर्जुमा : जो शख्स दुआ ए क़ुनूत सही तरीक़े से ना पढ़ सकता हो, तो वह यह कहे
’’ربنا اٰتنا فی الدنیا حسنۃ وفی الاٰخرۃ حسنۃ‘‘
और हज़रत फक़ीह अबूल लैस फरमाते हैं वह तीन मर्तबा
اللٰھم اغفرلی
कहे, और बाज़ ने कहा है तीन मर्तबा
یا رب
कह ले, ज़खीरा में इसे ज़िक्र किया।(ردالمحتار علی الدرالمختار، ج ٢ ص ٥٣٥ مطبوعہ پشاور )
मअरुफ दुआ ए क़ुनूत का पढ़ना सुन्नत है वाजिब नहीं जैसा कि दुर्रे मुख्तार मअ अर्रद्दुल मुहतार में है”ویسن الدعاء المشھور“
यानी (वित्र में) मशहूर दुआ पढ़ना सुन्नत है(दुर्रे मुख्तार मअ अर्रद्दुल मुहतार किताबुस्सलाह जिल्द सफा 2 534 मतबूआ कोइटा)मअरुफ दुआ ए क़ुनूत के अलावा कोई और दुआ पढ़ी जाए जब भी वाजिब अदा हो जाएगा फतावा शामी में है
"القنوت الواجب یحصل بای دعاء کان, قال فی النھر: واما خصوص اللھم انا نستعینک فسنۃ فقط، حتی لو اتی بغیرہ جاز اجماعا“
यानी क़ुनूते वाजिब किसी भी दुआ से हासिल हो जाता है,
साहिबे नहर ने फरमाया : की खास दुआ यानी
"اللھم انا نستعینک"
यह पढ़ना सुन्नत है, अगर किसी ने इस के अलावा कोई और दुआ पढ़ ली, तो बिल इजमा जायज़ है।
(رد المحتار مع الدر المختار، کتاب الصلوۃ، ج ٢ ص ٢٠٠ مطبوعہ کوئٹہ)
फक़ीहे आज़मे हिंद सदरुश्शरीआ हज़रत अल्लामा मुफ्ती मुहम्मद अमजद अली आज़मी अलैहिर्रहमा (अल मुतवफ्फा 1367 हिजरी) बहारे शरीअत में लिखते हैं"दुआ ए क़ुनूत का पढ़ना वाजिब है और इसमें किसी खास दुआ का पढ़ना ज़रूरी नहीं, बेहतर वह दुआएं हैं जो नबी ﷺ से साबित हैं और उनके अलावा कोई और दुआ पढ़े, जब भी हर्ज नहीं।(बहारे शरीअत जिल्द 1 हिस्सा 4 सफा 654, मकतबतुल मदीना कराची)वल्लाहु तआला व रसूलुहुल आला आलमु बिस्सवाब
अज़ क़लम
सैय्यद मुहम्मद नज़ीरुल हाशमी सहरवरदी शाही दारुल क़ज़ा व आस्तान ए आलिया गौसिया सहरवरदिया दाहोद शरीफ अल हिंद
बतारीख 8 जमादिल औव्वल 1446 हिजरी मुताबिक़ 11 नवम्बर 2024 ब रोज़ दो शंबाह (पीर)
हिंदी अनुवादक
मुहम्मद रिज़वानुल क़ादरी अशरफी सेमरबारी दुदही कुशीनगर
मुक़ीम : पुणे महाराष्ट्र
12 जमादिल औव्वल 1446 हिजरी मुताबिक़ 15 नवम्बर 2024 ब रोज़ जुम्मा
मीन जानिब : मसाइले शरइय्या ग्रुप