(जल्वए आला हज़रत ०४ )
मसलके आला हज़रत की सदाकत व हैसियत
लिहाजा मानना पड़ेगा कि आला हज़रत वही है जो असलाफ व अकाबिर और औलियाए उम्मत व भशाइखे मिल्लत का मसलक है।
मसलके आला हजरत कोई नया व जदीद मसलक नहीं बल्कि अहले सुन्नत व जमाअत ही में इस्लाम के तमाम मबादियात व मोअतकेदात दाखिल हैं उसी तरह मसलके आला हज़रत भी इस्लाम के तमाम ऐतकदियात व मुबादियात से सरे गू मुनह या जुदा नहीं है।
बाज लोग यह कहते हैं कि इमाम आजम अबू हनीफा और हुजूर गौसे आजम रजि अल्लाहु तआला अन्हुमा का मकाम व मरतबा आला हज़रत इमाम अहमद रजा बरेलवी से बढ़ कर है अगर कहना ही था तो ' मसलके इमाम आज़म " या " मसलक गौसे आजम ' कहा जाता ? इसका जवाब यही दिया जाता है कि अगर ऐसी सूरत में “ मसलके इमाम आज़म " कहा जाता तो गुमराह व बद दीन फिर्के और खुश अकीदा मुसलमानों के दरम्यान फर्क व इम्तियाज दुश्वार हो जाता।
यही वजह है कि मसलके इमाम आज़म नहीं कहा जाता क्योंकि बद अकीदा और देवबन्दी लोग भी अपने को हन्फी और मसलके इमाम आज़म के पैरू कहलाते हैं। इसी तरह मसलके गौसे आजम भी नहीं कहा जाता क्यों कि बाज गुमराह मुल्हिद और खुराफाती लोग भी मशरबी ऐतबार से अपने को कादरी वगैरह कहलाते हैं। अगर मसलके इमाम आजम , या मसलके गौसे आजम वगैरह कहा जाता तो बैनन्नास हमारा मज़हबी व ऐतकादी तशख्खुस जाहिर न होता और न हम इन इनुल - वक्तों से मुम्ताज होते।
➲ लिहाजा यह बावर व तस्लीम करना पड़ेगा कि मसलके आला हज़रत कहने से फिरकाहाए बातिला और हकीकी अहले सुन्नत के दरम्यान फर्क व इम्तियाज पैदा हो गया। आज के दौर में नजात व सलामती का जामिन यही है कि मसलके आला हज़रत कहा जाए वरना अपने आपकी शिनाख्त व पहचान मुश्किल होगी , अहले हक और अहले बातिल के दरम्यान फर्क और इम्तियाजी निशान का होना लाज़िम व जरूरी है।
इन हकाइक व सच्चाईयों के बावजूद अगर कोई मसलके आला हजरत के जवाज़ पर क़दगन व रोक लगाए वह अपने मसलक की शाने इम्तियाज़ बताए।
मसलके आला हज़रत की सदाकत व हकीकत और उसकी शरई हैसियत यही है इस पर बेजा कलाम की कोई गुंजाइश नहीं है , इस पर ऐतराज व अंगुश्त नुमाई करना मसलके हक से बगावत करना है।.(बा-हवाला, फैज़ाने आला हजरत सफ़ह-50)
इमाम अहले सुन्नत आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा बरेलवी कृदेसा सिरहू ने पचास से जाइद बल्कि जदीद तहकीक के मुताबिक सौ से जाइद उलूम व फुनून पर तकरीबन एक हजार किताबें तस्नीफ फरमाई अक्सर फुनून पर आपकी तसानीफ व यादगार मौजूद हैं उलूमे अक्लीया व नक्लीया का शायद ही कोई फन ऐसा है जिस पर आपकी तहरीर व तस्नीफ न हो।
आला हजरत इमाम अहमद रज़ा बरेलवी के अन्दर हमागीरियत व हमादानी थी तस्नीफ ख्वाह किसी इल्म व फन की हो उसमें मुतअद्दद मौजूआत पर बहस व तम्हीस की जाती है और मसला दाइरा को दलाइल व बराहीन से वाजेह व मबरहन करके पेश किया जाता है पेश आमदा मस्ले पर इस शान से कलाम व गुफ्तगू करते हैं कि उसका कोई गोशा तिशन - ए - तक्मील नहीं रहता , हर जाविया निगाह से उसे मुकम्मल व आरास्ता करते हैं यह आपकी शाने तज्दीद और उलूम व फुनून पर महारत व दस्तरस की अदना मिसाल है!
अह्या - ए - दीन व सुन्नत में तहरीर व तस्नीफ का एक अहम मकाम है तहरीरी व तस्नीफी सलाहियत व इस्तेअदाद के बगैर कमा हक्कुहू दीने मतीन की खिदमत और उलूमे इस्लामिया की इशाअत व तश्हीर मुम्किन नहीं। खालिके काइनात ने आला हज़रत इमाम अहमद रजा बरेलवी कुदेसा सिर्रहू को दीनी जज्बा व शौक का खास हिस्सा अता फरमाया था जिसकी बदौलत वह उलूम व फुनून के बहरे बेकराँ हो गए उन्होंने जिरा गौज़ पर लग उठाया इल्म व फन का दरिया बहा दिया उनकी तहरीर सिक्क - ए - राइजुल - वगत हो गई उनके नाम से किसी तहरीर व इक्तिबास का हवाला उसके मुस्तनद व गोतबर होने की ज़मानत हो गई। उन्होंने जो लिखा कुरआन व हदीस इरशादाते सहाबा व ताबईन , कुतुबे शरीआ की इबारात व नुसूस और अक्वाले अइम्मा व असलाफ के हवाले से लिखा कोई भी बात बेसनद व गैर मोतबर न लिखी वह हर बात में हज़म व एहतियात का दामन थामे रहे , सिराते मुस्तकीम व राहे ऐतदाल से सरे मू इंहिराफ न किया गोया कि तक्सी अज़ल ने उन्हें साबित कदमी का वाफिर हिस्सा अता फरमाया था जिसकी बुनियाद पर वह किसी भी लरिज़श व बेराह रवी से हमेशा महफूज व मागून रहे कुदरत ने उनके कलम को अपने ज़िम्म - ए - करम पर ले लिया इसलिए वह गलतियों से पाक रहे!.. (बा-हवाला, फैज़ाने आला हजरत सफ़ह-50)
पेशे नज़र किताब में जो कुछ लिखा गया है वह तसानीफे आला हज़रत के हवाले से लिखा गया है हर मज्मून के आखिर में उस किताब का नाम और सफः नम्बर वगैरह दर्ज कर दिया गया है जिससे वह मज़मून माखूज है गोया कि हमने तसानीफे आला हज़रत को माखज़ व मरजा करार दिया है और इसी हैसियत से उनका हवाला भी दिया है अगरचे तसानीफे आला हज़रत का माखज भी दीगर कुतुबे शरीआ हैं। ख्याल यह है कि आज हमें तसानीफे आला हज़रत को इसी तरह माखज़ व मराजे करार देने का हक है जिस तरह दूसरे अइम्मा व उलमा की तसानीफ को माखज़ समझा जाता है जबकि सबका मंबझू व सर चश्मा आयात व अहादीस ही हैं फिर क्या वजह है कि हम तसानीफे आला हज़रत को माखज़ की हैसियत से पेश न करें। ज़माना माजी में यह हवाला दिया जाता था कि " इमाम गजाली फरमाते हैं या इमाम राजी व इमाम जलालुद्दीन सुयूती फरमाते हैं : इसके बाद फिर किसी हवाले की ज़रूरत नहीं रहती थी न इसके सुबूत में किसी किताब का नाम लिखा जाता था जबकि उन अइम्मा किराम की जुमला बातें भी खुद उनकी जे हनी काविश या दिमागी पैदावार की न होती थीं बल्कि वह भी शरई दलाइल के हवाले से कहते थे इसी तरह आज ज़माना हाल में अगर यह कहा जाए कि " आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा बरेलवी फरमाते हैं तो इसके बाद फिर दीगर हवालों की ज़रूरत क्यों है!?
जबकि यह भी हवाले और शरई दलाइल के बगैर कोई बात नहीं कहते।आलम यह है कि आला हजरत इमाम अहमद रज़ा बरैलवी कुऐसा सिर्रहू जब किसी भसअले के सुबूत में दलाइल व शवाहिद पेश करने पर आते हैं तो वक्त के राजी व गजाली से कम दिखाई नहीं देते , अहादीस व आसार पेश करने पर आते हैं तो इमाम बुखारी व इमाम मुस्लिम के हम्सर व हमपाया मालूम होते हैं।
इस सबके बावजूद दौरे हाज़िर के तकाज़ों का लिहाज़ा करते हुए मैंने आयाते कुरआनिया में सूरत व आयत नम्बर और अहादीस में उनकी असल किताबों के हवाले भी दर्ज कर दिए हैं जिनसे आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा बरेलवी कुदेसा सिरहू ने हदीसों का इस्तिखराज फरमाया है और कहीं कहीं दीगर कुतुब के हवालों का इन्दराज भी अमल में आया है।. बा-हवाला, फैज़ाने आला हजरत सफ़ह-50)
मौलाना
अब्दुल लतीफ नईमी रज़वी क़ादरी
बड़ा रहुवा बायसी पूर्णियाँ (सीमांचल)