(जल्वए आला हज़रत 0३ )
इमामे इश्क व मुहब्बत आला हज़रत इमाम अहमद रजा बरेलवी रजि अल्लाहु तआला अन्हु एक सच्चे आशिके रसूल थे उनका इश्क व अकीदत मशहूरे ज़माना और ख्वास व अवाम के नजदीक मुसल्लम है इश्क रिसालत ही उनकी जिन्दगी का अजीम सरमाया और असल मेश्यार था , जिसके अन्दर इश्क रिसालत की जल्वा फरमाई जितनी ज़्यादा होगी उसका ईमान उतना ही कामिल व कवी होगा उन्होंने इश्के रिसालत की बुलन्दी को तक्मीले ईमान की अलामत व पहचान करार दिया , दुनिया को उन्होंने अपने इश्क भरे पैगाम व दर्से मुहब्बत से सरशार व सरमस्त कर दिया , उनकी रफ्तार व गुफ्तार में इश्के बिलाल व उवैस की झलक मौजूद थी , उनके किरदार व अमल में सिद्दीके अक्बर का इश्क व इख्लास जल्वा फरमा था , उनकी फिक्र व नज़र में उमर फारूक का जोश व जज़्बा मोजज़न था , उनके आदात व अतवार में सलमान व बूज़र का सोज था , उनके अक्वाल व अपआल में इश्के रिसालत की रंग आमेजियाँ थीं , उन्होंने जो लिखा इश्के रिसालत के आईने में लिखा , उन्होंने जो कहा इश्के रसूल के सांचे में ढाल कर कहा उनकी तसानीफ का एक एक वर्क उनके आशिक सादिक होने का शाहिद व गवाह है उनकी सतर सतर से इश्के रसूल फूटा पड़ता है उनका सीना इश्के रसूल का मदीना और वह बज़ाते खुद इश्क व वफा के पैकर मुजस्सम थे , आज के दौर में बरे सगीर के अन्दर जब आशिके रसूल बोला जाता है तो आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा के सिवा कोई और मुराद नहीं होता वह आशिके अलल - इतलाक हैं , यह उनके आशिके पाकबाज होने की रौशन व वाजेह दलील है!.(बा-हवाला, फैज़ाने आला हजरत सफ़ह 48)आला हजरत इमाम अहमद रज़ा बरेलवी ने जब आँखें खोली उस वक़्त आलमे इस्लाम खास तौर से हिन्दुस्तान के अन्दर हर तरफ फ़ितनों का दौर दौरा था , बदअकीदगी व बद मज़हबी और विदआत व खुराफ़ात की बीखकुनी की बजाए उन्हें फरोग व रिवाज दिया जा रहा था , खुश अकीदा मुसलमानों को राहे रास्त पर लाने के नाम पर शिर्क व बिदअत की सनद दी जा रही थी सहीहुल - अकीदा लोगों को ईमान व अकीदे की हिफाज़त के नाम पर दीन व सुन्नत से दूर किया जा रहा था , दीन व शरीअत में रखना अंदाज़ी करने वाले कोई गैर नहीं बल्कि वह ईमान फरोश मौलवी थे , मौलवियत के लिबादे में वह मज़हब व मिल्लत के दुश्मन व बदख़्वाह थे वह दुश्मन के लिबास में नहीं बल्कि दोस्त बन कर साथी व हमनवा के लिबास में सामने आए , दोस्तों की शक्ल में अदावत व दुश्मनी का जाल बिछाया , अँग्रेज़ की गुलामी और उन्हें खुश करने के लिए मुसलमानों में तफरका पैदा किया , रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु तआला अलैहि व सल्लम की शाने अक्दस में गुस्ताखियाँ की और नाज़ेबा कलिमात कहे जिसके नतीजे में मुसलमान दो फिरकों में बट गए और मिल्लते इस्लामिया का शीराज़ा मुंतशिर हो गया मगर वह बजुझुम ख्वेश अहले सुन्नत के खैर ख्वाह व हमनवा ही बने रहे और अपने को अहले सुन्नत का काइद व पेशवा ही कहा किरदार व गुफ़्तार और कौल व अमल के इस तजाद व तखालुफ से मिल्लते इस्लामिया को वह नुक्सान व जरर पहुँचा जिसकी तलाफ़ी मुम्किन नहीं!
हासिल यह कि जो लोग गुस्ताखे रसूल थे , जिन्होंने फितने पैदा किए , गरोह बन्दियाँ की जिनकी रेशा दवानियों से मिल्लते इस्लामिया बेचैन च मुज्तरिब हो गई यह अज़राहे फरेब यही दार करते रहे कि हम ही अहले सुन्नत के ठेकेदार व काइद हैं हमारा मजहबे अहले सुन्नत से जो रिश्ता हैं वह अटूट व पाइदार है , उन्होंने अपने आपको सुन्नी भी कहलाया और हन्फी भी , चूंकि वर सगीर की मुस्लिम अक्सरीयत सुन्नी हनफी की थी और आज भी दुनिया की मुस्लिम आबादी का बेशतर हिस्सा सुन्नी हन्की हैं इसी सुन्नी व हन्फी की आवाज़ व लेबल से उन्होंने सहीहुल - अकीदा मुसलमानों को अपने दामे तज्वीर में फंसाया इसी नाम से मुसलमानों को धोखा और फरेब में डाला , ऐसी सूरत में अहले सुन्नत के तशख्खुस व बका के लिए किसी ऐसे इम्तियाजी नाम व शिनाख्त की ज़रूरत थी जिस से फिरकाहाए बातिला और हकीकी सुन्नी व हन्फी में फर्के इम्तियाज़ पैदा हो जाता!.(बा-हवाला, फैज़ाने आला हजरत सफ़ह-50)
आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा बरेलवी कुद्देसा सिर्रहू ने इन अय्याराने जमाना का दागदार व बदनुमा चेहरा बेनकाब किया उनकी नापाक कोशिशों को तश्त अज़ बाम व वाशिगाफ किया , उनके मक्र व फरेब से दुनिया को आगाह व आशना कराया और बताया कि यह रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु तआला अलैहि व सल्लम की शाने रफी में गुस्ताखियों के सबब से काफिर व मुरतद और इस्लाम से खारिज हैं , मक्का मुअज्जमा और मदीना तैय्यबा के उलमा - ए - किराम व मुफ्तियाने इजाम ने उन पर कुफ्र व इर्तिदाद का हुक्म सादिर फरमाया है इसलिए यह हकीकी सुन्नी या हन्फ़ी नहीं हैं यह अपने दावे में सरासर झूठे और काज़िब हैं उन्होंने बद अकीदगी व बद मज़हबी को फरोग दिया बिदआत व खुराफात की आब्यारी की यह कुफ्र व शिर्क के अलमबरदार हैं , इन्होंने काफिरों की हमनवाई की और उनकी खुशी को अपनी खुशी जाना , शैतान की शागिर्दी की और अल्लाह व रसूल को नाराज व नाखुश किया , हाँ हकीकी सुन्नी व हन्फी वह है जो आशिके रसूल हो , बारगाहे रिसालत का गुस्ताख व मुज्मि न हो सहाबा व ताबईन और असलाफ व अकाबिर का अदब दाँ हो , औलिया - ए - उम्मत के तसर्राफात व इख़्तियारात का काइल व मोअतकिद हो।
इस नुक्त - ए - नज़र से जब आला हज़रत इमाम अहमद रजा बरेलवी की तालीमात व तज्दीदी कारनामों का जाइजा लिया जाता है तो अंदाज़ा होता है कि उन्होंने जाते रसूले अकरम सल्लल्लाह तआला अलैहि वसल्लम से इश्क व एहतराम और उन से वालिहाना वारफ़्तगी व शैफ्तगी का दर्स मुहब्बत दिया है , सहाबा व ताबईन की बारगाहों का अदब बताया , औलिया - ए - उम्मत और असलाफ व अकाबिरे मिल्लत के मकाम व मंसब से आगाह व आशना कराया और बताया कि हकीकी सुन हन्फी वही है जो इन औसाफे मजकूरा का हामिल व अमीन हो वरना फिक्र व ऐतकाद की दुरुस्तर्ग के बगैर आदमी सच्चा पक्का मुसलमान नहीं हो सकता बल्कि उसके बगैर वह कुफ्र व शिर्क है दलदल से ही निकल नहीं सकता।
चूंकि आला हज़रत इमाम अहमद रजा बरेलवी की मसाई जमीला और कोशिशों से दीन व सुव्रत को फरोग मिला आईने सुन्नत को रिवाज दिया गया , खास तौर से अहले . सुत्रत व जमाअत , बद अकीदों और बद मज़हबों मुम्ताज व नुमायाँ हो गए इसलिए वक्त के मशहूर व मुक्तदिर उलमा ने तशख्खुस व तफरीक के लिए “ मसलके आला हज़रत " कहना शुरू किया , मसलके आला हज़रत कहने से सहीहुल - अकीदा व बदअकीदा सुन्नी हन्फी के दरम्यान तपीक व तमीज पैदा हो गई। दूध का दूध और पानी का पानी हो गया!.( बा-हवाला, फैज़ाने आला हजरत सफ़ह-50)
मौलाना
अब्दुल लतीफ नईमी रज़वी क़ादरी
बड़ा रहुवा बायसी पूर्णियाँ (सीमांचल)