पुराने क़ुरआन शरीफ का किया करें
कुर्आन शरीफ़ पुराना बोसीदा हो गया कि पढ़ने के काबिल न रहा तो किसी पाक कपड़े में लपेट कर एहतेयात की जगह दफ़न कर दिया जाये और दफन करने में इसके लिये लहद (क़ब्र) बनाई जाये ताकि इस पर मिट्टी न पड़े! और पुराने कुरआन शरीफ़ को जो पढ़ने के काबिल नहीं रहता है तो उसको जलाया न जाये बल्कि दफ़न किया जाये! कुर्आन मजीद जिस सन्दूक़ में हो उस पर कपड़ा वगैरह न रखा जाये! (क़ानूने शरीअ्त)
तिलावते कुरआन पर उजरत लेने की मुमानेअत
क़ब्र वगैरह पर कुरआन मजीद पढ़ने की उजरत लेनी मना है! लोग जो मुकर्रर करते हैं और उजरत का नाम दर्मियान में नहीं आता, बाद को लेते देते हैं, यह भी उजरत ही है कि आदतन मालूम है कि वह लेने ही को पढ़ते हैं और यह पढ़ने ही पर देते हैं। हाँ अगर साफ़ कह दें कि दिया कुछ न जाएगा फिर दें तो हरज नहीं, कि तसरीह नफी, इस आदत की दलालत पर मुकद्दम है। क्योंकि शरअ दलालत भी मिस्ल सरीह है मगर जब सरीह उसके खिलाफ हो तो दलालत मोतवर नहीं!
कुरआने अज़ीम की तिलावत पर उजरत लेना देना दोनों हराम हैं, नबी ﷺ सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम फ़रमाते हैं कि कुरआन पढ़ो और उसे खुर्दनी का जरिया न बनाओ“हाँ जबकि ख़ास तिलावत पर मुआहेदा न हुआ हो, मसलन एक हाफ़िज़ को मुलाज़िम रखा और उसके मुतअल्लिक फिर यह काम भी कर दिया तो अब उसे तन्ख्वाह लेना जाइज़ है कि वह तिलावत कुरआन की उजरत नहीं, बल्कि उसके वक़्त की उजरत है। और तालीम बखौफ जहाबे कुरआन पर जवाज़े उजरत का फतवा मुतअख्खेरीन ने दे दिया है। अगर यह सूरत हो तो भी जाइज़ है और महज़ तिलावत पर उजरत का वही हुक्म है। (अल-मल्फूज़ अव्वल : सफ़ह 11 )