मज़ाराते औलिया पर हाज़री लगाना कैसा है
सवाल क्या फरमाते हैं उलमा ए किराम इस मसला में की दरगाह पर पेशी (हाज़री) लगाना कैसा है और इसकी क्या हक़ीक़त है
साईलमोहम्मद मुजाहिद बरकाती (कालपी शरीफ)
जवाब मज़ाराते औलिया पर हाज़री देना और फैज़ हासिल करना जायज़ व दुरुस्त है
हदीस शरीफ में है
عَنْ بُرَیْدَۃَ قَالَ قَالَ رَسُوْلُ اللّٰہِ ﷺ نَھَیْتُکَمْ عَنْ زِیَا رَۃِ الْقُبُوْرِ فَزُوْرُوہ
हज़रत बुरैदा रज़ि अल्लाहू अन्हू से रिवायत है कि हुजूर ﷺ ने फरमाया कि मैंने तुम लोगों को क़ब्रों की ज़ियारत से मना किया था लिहाज़ा (अब तुम्हें इजाज़त देता हूं कि) उनकी ज़ियारत किया करो
(مسلم جلد اول کتاب الجنا ئز صفحہ ۳۱۴)
(مشکوٰۃ باب زیارۃ القبور الفصل الاول صفحہ ۱۵۴)
शुरू इस्लाम में ज़ियारत ए क़ुबूर मुसलमान मर्दों औरतों को मना कर दिया गया था क्योंकि लोग नए-नए इस्लाम लाए थेअंदेशा था कि बुत परस्ती के आदि होने की वजह से अब क़ब्र परस्ती ना शुरू कर देंजब उनमें इस्लाम रासिख हो गया तो यह ममानअत मनसुख हो गईजैसे शराब हराम हुई तो शराब के बर्तन का भी इस्तेमाल करना ममनूअ हो गया ताकि लोग बर्तन देख कर फिर शराब याद ना कर लेंजब लोग तर्के (छोड़ना) शराब के आदी हो गए तो बर्तनों के इस्तेमाल की ममानअत मनसुख हो गई,
जैसा की मुहक़ीक़े अलल इतलाक़ हज़रत शैख अब्दुल हक़ मुहद्दीस ए देहलवी बुखारी रहमतुल्लाह अलैह मज़कूर हदीस की शरह में फरमाते हैं कि
🎗️ ज़माना जाहिलीयत से क़ुर्ब के सबब अंदेशा से हुजूर ﷺ ने पहले क़ब्रों की ज़ियारत से मना कर दिया था कि लोग उनके साथ फिर कहीं जाहिलीयत वाला रवैया ना एख्तियार कर लेंफिर जब इस्लाम के क़वानीन से लोग खूब आगाह हो गए तो आपने क़ब्रों की ज़ियारत के लिए इजाज़त दे दी
(اشعۃ اللمعات جلد اول صفحہ ۷۱۷)
और दूसरी जगह शेैख साहब फरमाते हैं
زیا رت قبور مستحب با تفاق
यानी क़ब्रों की ज़ियारत बिल इत्तेफाक़ मुस्तहब है,
(اشعۃاللمعات جلداول صفحہ ۷۱۵)
और हज़रत इब्न मसउद रज़ि अल्लाहू अन्ह की रिवायत में ज़ियारत ए क़ुबूर के फवाईद बताते हुए मुस्तफा जाने रहमत ﷺ ने फरमाया
نَھَیْتُکَمْ عَنْ زِیَا رَۃِ الْقُبُوْرِ فَزُوْرُوْھَا فَاِنَّھَا تُزَھِّدُ فِی الدُّنْیَا وَتُذَکِّرُ الْاٰخِرَۃَ
मैंने तुम लोगों को क़ब्रों की ज़ियारत से मना किया था लिहाज़ा (अब तुम्हें इजाज़त देता हूं कि) उनकी ज़ियारत करो इसलिए की क़ब्रों की ज़ियारत दुनिया से बेज़ार करती है और आखिरत की याद दिलाती है,
(ابن ما جہ جلد اول ابواب ماجاء فی الجنا ئز صفحہ ۱۱۲)
(مشکوٰۃ باب زیارت القبورالفصل الثالث صفحہ۱۵۴)
यूं ही आसेब ज़दा औरत को बगर्ज़ इलाज जाना भी दुरुस्त है जबकि किसी और तरीक़े से ठीक ना हो जैसा कि आज कल के आमेलीन हैं कि रुपए का सवाल पहले करते हैं काम कुछ नहीं इल्ला माशा अल्लाहफिर बहुत से गरीब ऐसे हैं कि पैसा भी नहीं दे सकते तो अगर सही मानों में आसेबी है और मज़ारात ए औलिया पर जाने से शिफा मिल रहा है जैसे किछौछा शरीफ या दिगर मज़ारात ए औलिया से लोगों को फायदा पहुंचा है तो शरअन इजाज़त हैक्योंकि यह मजबूरी है जैसे गैर मोहरम को सत्र दिखाना हराम है मगर बगर्ज़ इलाज डॉक्टर को दिखाने की इजाज़त है और इसका सबूत कुरान करीम से है इरशाद ए रब्बानी है
اِنَّمَا حَرَّمَ عَلَيْکُمُ الْمَيْتَةَ وَالدَّمَ وَلَحْمَ الْخِنْزِيْرِ وَمَآ اُهِلَّ بِهٖ لِغَيْرِ اللّٰهِ ۚ فَمَنِ اضْطُرَّ غَيْرَ بَاغٍ وَّلَا عَادٍ فَلَا اِثْمَ عَلَيْهِ اِنَّ اللّٰهَ غَفُوْرٌ رَّحِيْمٌ
उसने यही तुम पर हराम किए हैं मुर्दार और खून और सूअर का गोश्त और वह जानवर जो गैर खुदा ही का नाम लेकर ज़िबह किया गया तो जो ना चार हो ना यूं की ख्वाहिश से खाए और ना यूं की ज़रूरत से आगे बढ़े तो उस पर गुनाह नहींबेशक अल्लाह बख्शने वाला मेहरबान है,
(کنز الایمان ،سورہ بقرہ آیت نمبر ۱۷۳)
🎗️ यानी अल्लाह तआला ﷻ ने मुर्दार खून और सूअर का गोश्त हराम फरमाया मगर साथ ही इरशाद फरमाया कि जो कोई ना चार हो यानी मजबूर तो खा सकता है इस मिक़दार में की उसकी जान बच जाएयानी ज़रूरत से ज़्यादा ना खाए और ना बगैर ज़रूरत यानी ख्वाहिश से खाए यूं हीं वह ख्वातीन जो सही मानों में आसेब ज़दा हैं और उनका इलाज किसी और तरीक़े से नहीं हो पा रहा है तो वह इतने दिन के लिए मज़ारात ए औलिया पर जा सकती हैं कि उनकी परेशानी दूर हो जाए
मगर इसमें भी शर्तें हैं जो मंदरजा ज़ेल हैं
(१) > शौहर या किसी मोहरम के साथ हो,
(२) > बेहतर उम्दा लिबास में ना हो जिससे गैरों का दिल उनकी तरफ माइल हो,
(३) > बगैर ज़ीनत के हो ना कि सिंगार वगैरा करके जाना जैसे कि अक्सर औरतें करके जाती हैं,
(४) > मर्द व औरत का खलत मलत (خلط ملط) ना हो,
(५) > पर्दे का मुकम्मल इंतज़ाम हो,
इन शर्तों के साथ अगर कोई औरत जाती है तो बवजह मजबूरी रुखसत यानी इजाज़त है मगर याद रहे की वहां जाकर अपनी मर्ज़ी से हाज़री ना लगाए यानी मकर करके चिल्लाए शोरो गिल करे जैसा कि मुशाहिदा है कि अक्सर औरतें मकर करती है और झूठ बोलकर भाई रिश्तेदार को बदनाम करती हैंहां अगर शैतान उपर हाज़िर होकर कुछ चिल्लाए तो कोई बात नहीं मगर उस वक़्त भी पर्दे का मुकम्मल ख्याल रखा जाएगा,
और अगर कुछ ना हुआ हो यूं हीं हाज़री लगाना औरतों को क़तअन जायज़ नहीं जैसा कि अक्सर औरतें हर जुमरात को मज़ारात ए औलिया पर हाज़री लगाती रहती हैं वह भी उम्दा उम्दा लिबास पहनकर मुकम्मल सिंगार कर के यह शरअन जाइज़ नहीं
जैसा कि आला हज़रत रज़ि अल्लाहू अन्हू से पूछा गया कि औरतों को मज़ार पर जाना कैसा है ? तो फरमाया ग़निया (غنیہ) में है यह ना पूछो कि औरतों का मज़ारों पर जाना जायज़ है या नहीं ? बल्कि यह पूछो कि उस औरत पर किस क़दर लानत होती है अल्लाह तआला की तरफ से और किस क़दर साहबे क़ब्र की जानिब सेजिस वक़्त वह घर से इरादा करती है लानत शुरू हो जाती है और जब तक वापस आती है मलाइका लानत करते रहते हैंसिवाए रौज़ ए रसूल ﷺ के किसी मज़ार पर जाने की इजाज़त नहींवहां की हाजरी अलबत्ता सुन्नते जलीला अज़ीमा क़रीब बवाजिबात है और कुरान करीम ने उसे मग़फिरत का ज़रिया बताया,
(الملفوظ ص۲۴۰؍ رضوی کتاب گھر دہلی)
والله و رسولہ اعلم باالصواب
अज़ क़लम फक़ीर ताज मोहम्मद हन्फी क़ादरी वाहिदी अतरौलवी
हिंदी ट्रांसलेट मोहम्मद रिज़वानुल क़ादरी सेमरबारी (दुदही कुशीनगर उत्तर प्रदेश)
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