माहे मोहर्रम में निकाह करना कैसा है?

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माहे मोहर्रम में निकाह करना कैसा है


 सवाल क्या फरमाते हैं उलमा ए दीन व मुफतियाने किराम मसअला ज़ेल के बारे में की मुहर्रमुल हराम के महीने में निकाह नहीं कर सकते हैं ? क्या मुहर्रमुल हराम का महीना मनहूस है 

 साईल अकबर अली

 जवाब इस्लामी साल के पहले महीने मुहर्रमुल हराम को साल के 12 महीनों में मिन वज्हे खास तरह का इम्तियाज़ हासिल है, बुखारी शरीफ की हदीस का एक हिस्सा पेशे खिदमत है 
1 साल 12 महीने का होता है, इनमें से चार महीने हुरमत वाले हैं, जिनमें से 3 महीने यानी, "ज़िल क़ाअदा" "ज़िल हिज्जा" और मुहर्रमुल हराम तो मुसलसल हैं, और एक "रजब" का महीना है जो जमादिल उखरा और शाबान के दरमियान आता है।(बुखारी हदीस न.४२९४)

 सरवरे आलम नूर ए मुजस्सम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने इस महीने में रोज़े रखने के बारे में इरशाद फरमाया 
रमज़ानुल मुबारक के बाद अफज़ल तरीन रोज़े अल्लाह तआला के यहां मुहर्रमुल हराम के रोज़े हैं। (सहीह मुस्लिम)
 लिहाज़ा साबित हुआ कि यह महिना मनहूस नहीं बल्कि अज़मत व फज़ीलत वाला महीना है हमारे मुआशरे में यह खराबीयां दर आई हैं कि बाज़ लोग शरीयत पर अपनी तबीयत को तरजीह देते हैं जबकि ऐसा करना सिर्फ जिहालत है इसके सिवा कुछ नहीं, आमाले सालिहा की तरगीब पर दर्जनों किताबों में तरगीबात मौजूद हैं
 वह भी निकाह जिसकी तरगीब हमारे आक़ा दोनों जहां के दाता सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने खुद फरमाई 
*बुखारी शरीफ में एक बाब ही इस उनवान से मौजूद है जिसका नाम (باب الترغیب فی النکاح لقولہ تعالی فانکحوا ماطاب لکم من النساء) है इसमें दर्ज अहादीस से वाज़ेह हो जाता है कि वक़्त पर निकाह करना कारे खैर है
 क़ारेईन को चाहिए कि किसी अफवाह पर तवज्जो देने के बजाय शरई हुक्म पर गौर करें
 "अमले निकाह" चाहे किसी महीने में हो, यह अपनी असल के ऐतबार से मुबाह, और मुबाह काम का नाजायज़ होना किसी वज़ह मुमानिअत से होता है, लेकिन इस महीने में, या इसके अलावा किसी और भी महीने में शरीअत की तरफ से किसी क़िस्म की कोई मुमानिअत नहीं मिलती, ना किताब व सुन्नत में, ना इजमा ए उम्मत से और ना ही क़यास वगैरा से, चुनांचे इस माह का निकाह अपनी असल (मुबाह होने) के एतबार से जायज़ रहेगा ।
 बल्कि इस से आगे बढ़ कर यह कहा जा सकता है कि फुक़्हा ए किराम का इस बात पर की (मोहर्रम या इसके अलावा किसी भी महीने में निकाह करना जायज़ है) कम अज़ कम इजमा ए सुकूती है, क्योंकि नबी ए अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम सहाबा ए किराम रज़ि अल्लाहू तआला अन्हुम, ताबिईन व तबए ताबिईन और मुतक़द्दमीन या मुताखिरीने फुक़्हा में से कोई एक भी ऐसा नहीं है, जो इस माहे मुबारक में शादी-ब्याह वगैरा को नाजायज़ क़रार दिया हो।
 लिहाज़ा अगर कोई इसको मना भी करता है तो उसका मना करना बगैर दलील के होगा और किसी भी दर्जा क़ाबिले एतबार नहीं होगा, मना करने वाले से पूछा जाए कि दलील पेश करें कुछ लोग शादी ब्याह इसलिए मना करते हैं कि यह गम का महीना है जबकि यह गम नहीं बल्कि शहादत व सआदत का महीना है।

 अल मुख्तसर यह है कि इसमें हर वह जायज़ काम करें जो आम दिनों में करते हैं।

والله تعالی اعلم بالصواب

 अज़ क़लम 
 मोहम्मद अखतर अली वाजिदुल क़ादरी

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